Sunday, September 1, 2013

सत्याग्रह या दुराग्रह ???

रियल लाइफ़ को रील लाइफ़ से जोड़कर डायरेक्टर प्रकाश झा अक्सर अपनी फ़िल्मों में सामाजिक मुद्दों को उठाने में कामयाब रहे हैं. हालिया रिलीज फ़िल्म सत्याग्रह भी इसी कड़ी का हिस्सा है. हालांकि सत्याग्रह की स्क्रिप्ट में थोड़ा सा ट्विस्ट है.

कहानी के पीछे की कहानी

इस फिल्म में दो अलग-अलग घटनाक्रमों को फ़िल्म के पैमाने में फिट बैठाने की कोशिश की गई है. राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में इंजीनियर रहे सत्येंद्र दुबे हत्याकांड की यादें अब भी लोगों के जेहन में ताज़ा हैं. वही ईमानदार इंजीनियर सत्येंद्र दुबे जिन्होंने तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर NHAI में चल रहे भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश की थी. लेकिन 27 नवंबर 2003 को पटना के सर्किट हाउस में उनकी हत्या हो गई...

कहानी कुछ ज्यादा ही प्रेडिक्टेबल
                                       
सत्याग्रह की शुरुआती कहानी भी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है. फिल्म में अंबिकापुर के आदर्शवादी पूर्व प्रिंसिपल द्वारका आनंद (अमिताभ बच्चन) के इंजीनियर बेटे अखिलेश (इंद्रनील सेन गुप्ता) की मौत भी ऐसे ही मिलते-जुलते हालात में होती है. लेकिन बेटे की मौत पर मुआवज़े के लिए चक्कर काट रहे द्वारका बाबू जैसे ही अंबिकापुर के डीएम को थप्पड़ मारते हैं, इसमें अन्ना आंदोलन की खिचड़ी भी पकने लगती है. द्वारका बाबू के जेल जाने की ख़बर से उनके बेटे का जिगरी दोस्त मानव राघवेंद्र (अजय देवगन) भी भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्याग्रह में कूद पड़ता है...इस लड़ाई में द्वारका बाबू के पास आदर्श हैं, तो दूसरी तरफ़ मानव सोशल मीडिया और प्रैक्टिकल सोच वाला आदमी है. इन दोनों का मेल सत्याग्रह को धार देता है. जिससे इलाके के नेता और गृह मंत्री बलराम सिंह (मनोज वाजपेयी) की कुर्सी हिल जाती हैं. हालांकि मानव ख़ुद भी कारोबारी है, और भ्रष्टाचार में लिप्त था, लेकिन दादू जी यानी द्वारका बाबू का नेक मकसद उसे भी बदल देता है...

सत्याग्रह की मुहिम में युवा नेता अर्जुन रघुवंश (अर्जुन रामपाल) और ख़बरिया चैनल की पत्रकार यास्मीन (करीना कपूर) भी जुड़ जाती हैं. फ़िल्म की स्क्रिप्ट में आगे वही सारी चीज़ें दिखती हैं, जो अगस्त 2011 में अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान रामलीला मैदान में दिखी थीं. सत्याग्रह की लंबी लड़ाई का अंत राजनीतिक पार्टी के गठन से होता है, जिसमें दादू जी को जान की कुर्बानी देनी पड़ती है...

फिल्म की कहानी कहां हाथ से निकली?

प्रकाश झा की फ़िल्म को देखने के लिए जिस सोच के साथ सिनेप्रेमी जाता है, उस लिहाज से तो सत्याग्रह निराश करती है. मसलन एक मौके पर द्वारका बाबू अमर रहें के नारे लगते दिखते हैं. जबकि वो अनशन के मंच पर जीवित बैठे हैं. सत्याग्रह के आख़िर में इतनी हिंसा भी बेतुकी लगती है. ख़ास तौर से जिन लोगों ने अन्ना आंदोलन के दौरान भीड़ का अनुशासित प्रदर्शन देखा है, उन्हें ये आसानी से नहीं पचेगी. 

कौन सा क़िरदार रहा कमज़ोर?
 

अमिताभ का रोल तो मज़बूत है, लेकिन कई मौक़ों पर मामला ओवरडोज़ का हो जाता है. अजय देवगन जंचते तो हैं, लेकिन 6 हज़ार 317 करोड़ का बिजनेस छोड़कर सत्याग्रह के लिए अचानक धूल फांकना भी अजीब लगता है. करीना भी ग्राउंड ज़ीरो के पत्रकार से ज़्यादा मॉडल नज़र आती हैं. अर्जुन रामपाल भी फिलर के तौर पर काम करते दिखे...

मज़बूत पक्ष की बात करें तो फ़िल्म में बाज़ी मारी है बलराम सिंह यानी मनोज वाजपेयी ने. उनकी संवाद अदायगी और अदा वैसी ही है, जिसके लिए वो जाने जाते हैं. शुरू से आख़िर तक दर्शकों की सबसे ज़्यादा ताली उन्हीं को मिली. द्वारका बाबू की विधवा बहू सुमित्रा यानी अमृता राव ने ज़रूर छाप छोड़ी है. अजय-करीना का रोमांटिक सॉन्ग बेतुका तो है, लेकिन बनारस घराने के छन्नू लाल मिश्र के बोल लाजवाब हैं. मेरी निगाह में गंगाजल और अपहरण के बाद प्रकाश झा कमबैक नहीं कर पाए हैं. राजनीति और आरक्षण के बाद अब सत्याग्रह भी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाती दिखती है. कम से कम प्रकाश झा के प्रशंसकों को इस फ़िल्म से कोई उम्मीद पालने की ज़रूरत नहीं है...

संप्रति- 
सुधाकर सिंह,
टीवी पत्रकार
मोबाइल- 8860764647