Sunday, June 25, 2017

जब वाजपेयी ने कलाम से कहा- केवल हां चाहिए, न नहीं


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दफ़्तर में विशेष अधिकारी रहे दुलत के मुताबिक 2002 में फ़ारूक़ अब्दुल्ला को उपराष्ट्रपति और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनाने की योजना चल रही थी. यह प्रस्ताव राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्र ने प्रधानमंत्री वाजपेयी की तरफ़ से फ़ारूक़ अब्दुल्ला के सामने तब रखा था जब वह दुलत के घर पर डिनर कर रहे थे. इसके बाद वाजपेयी और आडवाणी ने भी इस सिलसिले में फ़ारूक़ अब्दुल्ला से बात की थी. वाजपेयी का इरादा था फ़ारूक को दिल्ली लाना ताकि वह फिर से मुख्यमंत्री नहीं बन पाएं और उमर भी इससे ख़ुश रहें.
यह प्रस्ताव फ़ारूक़ को तब दिया गया जब लगा कि तब के उपराष्ट्रपति कृष्णकांत 11वें राष्ट्रपति बन जाएंगे. लेकिन बाद में आडवाणी ने कृष्णकांत को राष्ट्रपति बनाने के प्रस्ताव का विरोध किया. फ़ारूक़ को दिल्ली में बैठी एनडीए सरकार पर भरोसा नहीं था कि वे अपना वादा पूरा करेंगे. उनकी शंका सच भी साबित हुई. फ़ारूक़ को लेकर एनडीए में माना गया कि वह एक गंभीर शख़्स नहीं हैं. ख़ास तौर से संघ परिवार को उनका नाम पसंद नहीं आया. फिर फ़ारूक को दिल्ली में कैबिनेट मंत्री बनाने की बात भी हुई, लेकिन वह भी नहीं हो पाया. 

उधर एपीजे अब्दुल कलाम चेन्नई की अन्ना यूनिवर्सिटी में 10 जून 2002 को 'विज़न टू मिशन' पर अपना नौवां लेक्चर दे रहे थे. जब वह शाम को लौटे तो अन्ना यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर ए कलानिधि ने उनसे कहा कि उनके दफ़्तर में लगातार आपसे बात करने के लिए फ़ोन आ रहे थे. जब कलाम अपने कमरे में पहुंचे तब भी फ़ोन की घंटी बज रही थी. उन्होंने फ़ोन उठाया तो आवाज़ आई, "प्रधानमंत्री आपसे बात करना चाहते हैं." जब तक प्रधानमंत्री फ़ोन पर आते तब तक कलाम के मोबाइल पर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का फ़ोन आ चुका था. नायडू ने कहा कि पीएम का आपके पास एक इंपॉर्टेंट कॉल आने वाला है. प्लीज़ ना मत कहिएगा. इतनी ही देर में दूसरे फ़ोन पर वाजपेयी की आवाज़ सुनाई दी.

वाजपेयी ने पूछा, "कलाम साहब, आपका काम कैसा चल रहा है?" जवाब मिला, "बहुत बढ़िया. फैंटास्टिक." वाजपेयी ने कहा, "मेरे पास आपके लिए एक बड़ी अहम ख़बर है. अभी मैं एनडीए में सहयोगी दलों की बैठक से आ रहा हूं और हमने सर्वसम्मति से तय किया है कि देश आपको राष्ट्रपति के तौर पर चाहता है. आपकी सहमति चाहिए. मुझे रात को इसका एलान करना है, मुझे केवल हां चाहिए, न नहीं." 

कलाम ने कहा, "वाजपेयी जी मुझे दो घंटे का वक़्त दीजिए. इसके साथ ही राष्ट्रपति चुनाव के लिए दूसरे राजनीतिक दलों की सहमति भी चाहिए होगी." वाजपेयी ने कहा, "आपके तैयार होने के बाद हम सबसे सहमति बनाने पर काम करेंगे."
दो घंटे बाद कलाम ने फ़ोन किया, "वाजपेयी जी मुझे यह बहुत महत्वपूर्ण मिशन लगता है, लेकिन मैं सभी पार्टियों की तरफ़ से उम्मीदवार बनना चाहता हूं." वाजपेयी ने कहा कि हम इस पर काम करेंगे.
पंद्रह मिनट में यह ख़बर देश भर में आग की तरह फैल गई. वाजपेयी ने उसी दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को फ़ोन किया. सोनिया गांधी ने वाजपेयी से पूछा कि क्या एनडीए में इस पर फ़ैसला हो गया है? वाजपेयी ने हां कहा. सोनिया गांधी ने कांग्रेस और अपने सहयोगी दलों से सलाह-मशविरा के बाद 17 जून 2002 को कलाम को समर्थन देने का एलान किया. सिर्फ़ लेफ़्ट पार्टियों ने अपना उम्मीदवार अलग से खड़ा करने की बात की. अगले दिन के अख़बारों और न्यूज़ चैनलों पर सिर्फ़ यही ख़बर थी और बहुत सारे सवाल भी थे, कि क्या एक ग़ैर-राजनीतिक शख़्सियत राष्ट्रपति पद की ज़िम्मेदारी को संभाल पाएगी? 
तब बीजेपी के सबसे कद्दावर नेता माने जाने वाले प्रमोद महाजन को कलाम का इलेक्शन एजेंट बनाया गया और कलाम के दिल्ली में एशियाड गांव के फ़्लैट नं. 833 को कैम्प ऑफिस में तब्दील कर दिया गया. प्रमोद महाजन ने कलाम को सभी सांसदों को एक चिट्ठी लिखने को कहा जिसमें कलाम अपने विचार और योजनाओं के बारे में विस्तार से जानकारी देते. ये चिट्ठी दोनों सदनों के तकरीबन 800 सांसदों को भेजी गई और कलाम भारी बहुमत से 18 जुलाई 2002 को राष्ट्रपति चुन लिए गए. 25 जुलाई को जब कलाम संसद के खचाखच भरे सेंट्रल हॉल में शपथ ले रहे थे तब सभी विशिष्ट अतिथियों के साथ-साथ देश भर से आए सौ बच्चे भी इस समारोह के ख़ास मेहमान थे. शायद पहली बार देश को एक ऐसा राष्ट्रपति मिला, जिसने राष्ट्रपति भवन के दरवाज़े आम आदमी के लिए खोल दिए. सही मायनों में आम आदमी का ख़ास राष्ट्रपति! 
(आभार: हार नहीं मानूंगा एक अटल जीवन गाथा, लेखक: विजय त्रिवेदी, प्रकाशक: हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया.)


Saturday, September 5, 2015

अतीत का आईना...

रज़िया फंस गई गुंडों में...ये जुमला तो आपको याद ही होगा...यादों के कारवां में आज बात ऐसी रज़िया की होगी, जो गुंडों के बीच नहीं फंसी...बल्कि निहायत ही शरीफ़ और मिलनसार लोगों के बीच फंसी थी...शायद रज़िया को फंसने जैसा एहसास भी नहीं था, वो तो उन चार लोगों की ज़िंदगी का हिस्सा बनकर बेहद ख़ुश थी...ख़ुद की क़िस्मत पर इतरा रही थी...और रज़िया की शान में चार चांद लगाने के लिए ये चार शख़्स दिलो-जां से हाज़िर रहते थे...रज़िया के रखवालों को भी ये पता था कि उनका गुलशन इन्हीं चार की बदौलत आबाद रहता है...अब आप कहेंगे कि इस तस्वीर का रज़िया से क्या ताल्लुक...जनाब निज़ाम के शहर में जब नवाबों के शहर की तहजीब और तमीज़ की आमद हुई, तो ऐसी बहुत सी तस्वीरों की गवाह रज़िया बनी...चलिए अब सस्पेंस को ख़त्म किया जाए...हम बात कर रहे हैं रज़िया कॉटेज की...पूरा पता- C/O, मोहम्मद इदरीस शरीफ़, प्लॉट नंबर- A-209, हिल कॉलोनी, निकट वैलेंटाइन बेकरी, वनस्थलीपुरम्, ज़िला- रंगारेड्डी (आंध्र प्रदेश)...जी हां रामोजी फ़िल्म सिटी में काम करते वक़्त आख़िरी दो साल यही मेरा स्थानीय पता था...हालांकि सुजीत श्रीवास्तव, रामगोपाल द्विवेदी और आशीष निगम रज़िया के पुराने आशिक़ थे...कहने का मतलब कि मुझसे 8 महीने पहले से रज़िया कॉटेज ही उनका डेरा और बसेरा था...जनवरी 2009 में मुझे रज़िया की खिदमत में पेश होने का प्रस्ताव मिला, जिसे में इनकार न कर सका और इन तीनों साथियों के साथ रज़िया का हमसफ़र बन गया...हमारी ज़रूरतों ने रज़िया की अहमियत बढ़ा दी...धीरे-धीरे वो ईटीवी में काम कर रहे हमारे तमाम साथियों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में रच-बस गई...हमारे लिए रज़िया सुबह-ए-बनारस भी थी और शाम-ए-अवध भी...रज़िया बहुत सारे इकरार की गवाह बनी और कई बार तक़रार को भी बख़ूबी झेला...रज़िया के जीवन में तीन और शख़्स भी इस दौरान आए, हालांकि उनका ये मिलन कम वक़्त का मेहमान रहा...यूपी डेस्क के विक्रम मिश्रा, विश्वनाथ जी और ग्राफिक डिजायनर अजीत ने भी कुछ अरसे के लिए रज़िया की रौनक बढ़ाई...वैसे रज़िया तो हमारे सभी साथियों के लिए पलक-पांवड़े बिछाए तैयार रहती थी...कहने के लिए तो हम चार लोग ही रज़िया कॉटेज की ग्राउंड फ्लोर पर रहते थे...लेकिन आस-पड़ोस के लोगों को भी शायद ये पता नहीं चल पाता था कि वाकई में कितने लोग रज़िया के दिल में बसते हैं...रज़िया हर किसी को आसानी से ख़ुद में समेट लेती थी...उसके संस्कार ही कुछ ऐसे थे...नीचे हवन का धुआं उठता था और ऊपर क़ुरान की पवित्र आयतों की आवाज़ फ़िज़ा को पाक बना देती थी...वहां ईद की सिंवइयों की मिठास भी थी और होली की गुझिया का स्वाद भी...रज़िया की ये समाजिक और सांस्कृतिक विरासत हमारे लिए हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब की सबसे बड़ी प्रतीक जैसी थी...वैसे तो रज़िया के रखवाले (मकान मालिक) इदरीस भाई थे, लेकिन भरोसा ऐसा था कि कभी ज़रूरत पड़ी, तो रज़िया को हमारे हवाले करने में रत्ती भर भी गुरेज नहीं किया...रज़िया ने बहुत सारी दावतों की भी मेजबानी की... शायद ही कोई दिन ऐसा था जब हमने चार लोगों के लिए खाना बनाया...अगर बना भी तो उसमें हिस्सेदारी करने वालों की संख्या चार से ज़्यादा ही रही...चाय तो रज़िया के यहां सबसे बड़े रिवाज़ में शामिल थी...इस तस्वीर में दिख रहे अग्निवेश शर्मा, सत्येंद्र यादव और अमित सिंह विराट भी एक शाम चाय की इसी रवायत का हिस्सा बने...2010 में ईटीवी को अलविदा कहते वक़्त रज़िया से दूर होना मजबूरी थी... लेकिन आज भी यादों के आईने में जब वनस्थलीपुरम् के इस आशियाने की तस्वीर देखता हूं, तो लगता है कि रज़िया से रिश्ता बहुत पुराना है...

अतीत का आईना...

मान्यताओं के मुताबिक शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैदराबाद के पास करनूल ज़िले में स्थित है...उत्तर में ज़्यादातर लोग इसे मल्लिकार्जुन के नाम से जानते हैं, लेकिन अगर आपने हैदराबाद में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग जाने का रास्ता पूछा, तो आपको शायद ही कोई बता पाए...आंध्र प्रदेश में महादेव की ये स्थली श्रीशैलम् के नाम से मशहूर है...हैदराबाद से तक़रीबन 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित श्रीशैलम् बेहद ख़ूबसूरत और प्राकृतिक सौंदर्य की विलक्षण अनुभूति का केंद्र है...हैदराबाद से यहां पहुंचने में क़रीब 5 घंटे लगते हैं...आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर का दौरा करने के बाद शिवानंद लहरी की रचना की...हैदराबाद से श्रीशैलम् तक का सफ़र अविस्मरणीय रोमांच से भरपूर है...नल्ला-मल्ला जंगल को पार करते हुए यहां का रास्ता तय किया जाता है...इसके बाद जगह-जगह आपको कृष्णा नदी घाटी का विहंगम नज़ारा देखने को मिलेगा...श्रीशैलम् में कृष्णा नदी को पातालगंगा के नाम से जाना जाता है...ऐसे ही एक रोमांचक सफ़र पर मैं भी निकला था...श्रीशैलम् जाने का दो बार मौक़ा मिला...संयोग की बात ये रही कि दोनों बार सावन महीने में भोले बाबा की चौखट पर पहुंचा...श्रीशैलम् की यात्रा में एक बड़ा आकर्षण का केंद्र श्रीशैलम् पावर प्रोजेक्ट भी है...पूरे सफ़र में आपको प्रकृति के ऐसे मनोरम नज़ारे दिखेंगे, जो आप भुला नहीं पाएंगे...उत्तर का कैलाश तो नहीं देखा, लेकिन दक्षिण के कैलाश यानी श्रीशैलम् को देखा और महसूस किया...वाकई ये ऐसी अनोखी जगह है, जहां एक बार पहुंचने के बाद आप बार-बार जाने की हसरत रखेंगे...

अतीत का आईना...

रामोजी फ़िल्म सिटी में एक बड़ा आकर्षण फ़िल्मों की शूटिंग को लेकर होता था...कभी रात में शूटिंग का मज़ा लीजिए, कभी दिन में...एक दिन मैं भी इसी उत्साह में ईटीवी बिल्डिंग के पीछे बने एयरपोर्ट के सेट के पास पहुंच गया...पता चला कि रोहित शेट्टी की फ़िल्म ऑल द बेस्ट के गाने की शूटिंग चल रही है...अब भला संजू बाबा को क़रीब से देखने का मौक़ा कैसे गंवाता...लिहाजा मैं भी दर्शक दीर्घा का हिस्सा बनने पहुंच गया...ये फोटो मैंने अपने मोबाइल से ली थी, वो भी बड़े दिलचस्प तरीक़े से...दरअसल तस्वीर में जो कैमरा दिख रहा है, इसको ज़ूम चैनल के कैमरामैन संभाल रहे थे...मैंने भी बग़ैर देरी किए कैमरामैन के कंधे पर हाथ रखकर फोटो खींच ली...तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि अगर प्रबंधन को पता चल गया कि आप शूटिंग देखने में मशगूल हैं, तो अनुशासनात्मक कार्रवाई का भी सामना करना पड़ सकता था...लेकिन ज़्यादातर साथी इसकी परवाह नहीं करते थे...एक और बात फ़िल्म सिटी के ज़्यादातर लोकेशन ईटीवी में काम करने वाले लोग आसानी से पहचान लेते हैं...क्योंकि बहुत सारे लोकेशन तो रोज़ बस से फिल्म सिटी में प्रवेश करते ही दिख जाते थे...ऐसे में बॉलीवुड हो या टॉलीवुड की फ़िल्म, सीन देखते ही ज़्यादातर साथी भांप जाएंगे कि सहारा के पास कौन सी शूटिंग हुई और तारा-सितारा पर किसकी...एक और दिलचस्प वाकया सरकार राज फिल्म को देखते वक्त हुआ...मूवी में एक जगह अभिषेक बच्चन प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, लेकिन सारी चैनल आईडी एक ही चैनल यानी ईनाडु की थीं...हॉल का नाम भी बता देता हूं, वही अपना सुषमा सिनेमा हॉल...ख़ास बात ये थी कि फ़िल्म देखने वाले ज़्यादातर लोग भी वहां ईटीवी से ही आए थे...सुषमा अब भी रामोजी फ़िल्म सिटी के लोगों का मनोरंजन केंद्र बना हुआ है...

Sunday, September 1, 2013

सत्याग्रह या दुराग्रह ???

रियल लाइफ़ को रील लाइफ़ से जोड़कर डायरेक्टर प्रकाश झा अक्सर अपनी फ़िल्मों में सामाजिक मुद्दों को उठाने में कामयाब रहे हैं. हालिया रिलीज फ़िल्म सत्याग्रह भी इसी कड़ी का हिस्सा है. हालांकि सत्याग्रह की स्क्रिप्ट में थोड़ा सा ट्विस्ट है.

कहानी के पीछे की कहानी

इस फिल्म में दो अलग-अलग घटनाक्रमों को फ़िल्म के पैमाने में फिट बैठाने की कोशिश की गई है. राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में इंजीनियर रहे सत्येंद्र दुबे हत्याकांड की यादें अब भी लोगों के जेहन में ताज़ा हैं. वही ईमानदार इंजीनियर सत्येंद्र दुबे जिन्होंने तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर NHAI में चल रहे भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश की थी. लेकिन 27 नवंबर 2003 को पटना के सर्किट हाउस में उनकी हत्या हो गई...

कहानी कुछ ज्यादा ही प्रेडिक्टेबल
                                       
सत्याग्रह की शुरुआती कहानी भी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है. फिल्म में अंबिकापुर के आदर्शवादी पूर्व प्रिंसिपल द्वारका आनंद (अमिताभ बच्चन) के इंजीनियर बेटे अखिलेश (इंद्रनील सेन गुप्ता) की मौत भी ऐसे ही मिलते-जुलते हालात में होती है. लेकिन बेटे की मौत पर मुआवज़े के लिए चक्कर काट रहे द्वारका बाबू जैसे ही अंबिकापुर के डीएम को थप्पड़ मारते हैं, इसमें अन्ना आंदोलन की खिचड़ी भी पकने लगती है. द्वारका बाबू के जेल जाने की ख़बर से उनके बेटे का जिगरी दोस्त मानव राघवेंद्र (अजय देवगन) भी भ्रष्टाचार के खिलाफ सत्याग्रह में कूद पड़ता है...इस लड़ाई में द्वारका बाबू के पास आदर्श हैं, तो दूसरी तरफ़ मानव सोशल मीडिया और प्रैक्टिकल सोच वाला आदमी है. इन दोनों का मेल सत्याग्रह को धार देता है. जिससे इलाके के नेता और गृह मंत्री बलराम सिंह (मनोज वाजपेयी) की कुर्सी हिल जाती हैं. हालांकि मानव ख़ुद भी कारोबारी है, और भ्रष्टाचार में लिप्त था, लेकिन दादू जी यानी द्वारका बाबू का नेक मकसद उसे भी बदल देता है...

सत्याग्रह की मुहिम में युवा नेता अर्जुन रघुवंश (अर्जुन रामपाल) और ख़बरिया चैनल की पत्रकार यास्मीन (करीना कपूर) भी जुड़ जाती हैं. फ़िल्म की स्क्रिप्ट में आगे वही सारी चीज़ें दिखती हैं, जो अगस्त 2011 में अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान रामलीला मैदान में दिखी थीं. सत्याग्रह की लंबी लड़ाई का अंत राजनीतिक पार्टी के गठन से होता है, जिसमें दादू जी को जान की कुर्बानी देनी पड़ती है...

फिल्म की कहानी कहां हाथ से निकली?

प्रकाश झा की फ़िल्म को देखने के लिए जिस सोच के साथ सिनेप्रेमी जाता है, उस लिहाज से तो सत्याग्रह निराश करती है. मसलन एक मौके पर द्वारका बाबू अमर रहें के नारे लगते दिखते हैं. जबकि वो अनशन के मंच पर जीवित बैठे हैं. सत्याग्रह के आख़िर में इतनी हिंसा भी बेतुकी लगती है. ख़ास तौर से जिन लोगों ने अन्ना आंदोलन के दौरान भीड़ का अनुशासित प्रदर्शन देखा है, उन्हें ये आसानी से नहीं पचेगी. 

कौन सा क़िरदार रहा कमज़ोर?
 

अमिताभ का रोल तो मज़बूत है, लेकिन कई मौक़ों पर मामला ओवरडोज़ का हो जाता है. अजय देवगन जंचते तो हैं, लेकिन 6 हज़ार 317 करोड़ का बिजनेस छोड़कर सत्याग्रह के लिए अचानक धूल फांकना भी अजीब लगता है. करीना भी ग्राउंड ज़ीरो के पत्रकार से ज़्यादा मॉडल नज़र आती हैं. अर्जुन रामपाल भी फिलर के तौर पर काम करते दिखे...

मज़बूत पक्ष की बात करें तो फ़िल्म में बाज़ी मारी है बलराम सिंह यानी मनोज वाजपेयी ने. उनकी संवाद अदायगी और अदा वैसी ही है, जिसके लिए वो जाने जाते हैं. शुरू से आख़िर तक दर्शकों की सबसे ज़्यादा ताली उन्हीं को मिली. द्वारका बाबू की विधवा बहू सुमित्रा यानी अमृता राव ने ज़रूर छाप छोड़ी है. अजय-करीना का रोमांटिक सॉन्ग बेतुका तो है, लेकिन बनारस घराने के छन्नू लाल मिश्र के बोल लाजवाब हैं. मेरी निगाह में गंगाजल और अपहरण के बाद प्रकाश झा कमबैक नहीं कर पाए हैं. राजनीति और आरक्षण के बाद अब सत्याग्रह भी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाती दिखती है. कम से कम प्रकाश झा के प्रशंसकों को इस फ़िल्म से कोई उम्मीद पालने की ज़रूरत नहीं है...

संप्रति- 
सुधाकर सिंह,
टीवी पत्रकार
मोबाइल- 8860764647
 

Monday, December 26, 2011

राजनीति के अजातशत्रु



धरती को बौने नहीं ऊंचे कद के इंसानों की ज़रूरत है...
लेकिन इतने ऊंचे भी नहीं कि कहीं कोई दूब न जमे...
कोई कांटा न चुभे...मेरे प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना...
ग़ैरों को गले न लगा सकूं...ऐसी रुखाई कभी मत देना...
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति के भीष्म पितामह हैं...और मैं उनसे अपील करता हूं कि वो न्यूक्लियर डील के समर्थन में आगे आएं...2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर लेफ्ट का विरोध झेल रहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बीजेपी से सहयोग मांगते हुए ये अपील की थी... दरअसल वाजपेयी सियासत में आम सहमति के अटल पैरोकार रहे हैं...यही वजह है कि कभी उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र 51 और 49 का खेल नहीं है...2002 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने जिस तरह सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह के साथ बैठक कर डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर आम सहमति बनाई...वो सहमति की सियासत की बेहतरीन मिसाल है...
जन्म- 25 दिसंबर 1924
जन्म स्थान- ग्वालियर(मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश के ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 को जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी की शुरुआती पढ़ाई ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हुई...जबकि आगे की पढ़ाई उन्होंने कानपुर के डीएवी कॉलेज सेकी...कॉलेज जीवन से ही वाजपेयी को कविता लिखने का शौक था...जो आगे भी जारी रहा...
आओ फिर से दिया जलाएं...
हम पड़ाव को समझें मंज़िल...
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल...
वर्तमान के मोहजाल में...
आने वाला कल न भुलाएं...
आओ फिर से दिया जलाएं...
1957 में पहली बार वो जनसंघ उम्मीदवार के रूप में यूपी की बलरामपुर सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे...संसद में अटल ने अपनी पहचान एक कुशल वक्ता के रूप में बनाई...कश्मीर मुद्दे पर बेबाक राय रखते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना ऐतिहासिक भूल थी...उनकी भाषण शैली से प्रभावित होकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था कि एक दिन ये युवक भारत का प्रधानमंत्री बनेगा...
आपातकाल के बाद जब मोरारजी देसाई की अगुवाई में सरकार बनी..तो वाजपेयी को विदेश मंत्री बनाया गया...4 अक्टूबर 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में यादगार भाषण दिया...इससे पहले देश के किसी नागरिक ने हिंदी का इस्तेमाल इस मंच से नहीं किया था...1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ...और वाजपेयी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक रहे... वाजपेयी लगातार 4 बार लखनऊ से सांसद रहे...और वो लोकसभा के इकलौते सदस्य हैं...जो 4 अलग-अलग राज्यों यूपी, एमपी, गुजरात और दिल्ली से चुने जा चुके हैं...1996 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी...तो 21 मई को वो पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने...हालांकि ये कार्यकाल 13 दिन का ही था…. मार्च 1998 में अटलजी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्रीबने...दूसरे कार्यकाल में उन्होंने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश के भविष्य को जोड़ा...11 और 13 मई 1998 को पोकरण में परमाणु परीक्षण के ज़रिए देश एटमी पावर से लैस बन गया...प्रतिबंधों की परवाह किए बिना वाजपेयी ने जय जवान, जय किसान के नारे में जय विज्ञान को जोड़ते हुए अमेरिका को भी चौंका दिया...हालांकि वो परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के हमेशा ख़िलाफ़ रहे...हिरोशिमा की पीड़ा नाम से लिखी कविता में वाजपेयी ने अपना दर्द बयां किया है...
किसी रात को मेरी नींद अचानक उचट जाती है...
आंख खुल जाती है...मैं सोचने लगता हूं कि...
जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का आविष्कार किया था...
वे हिरोशिमा-नगासाकी के भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर...
रात को कैसे सोए होंगे?
पाकिस्तान से संबंध सुधारने की दिशा में फरवरी 1999 में उनकी बस यात्रा के क़दम की काफ़ी प्रशंसा हुई...हालांकि बाद में करगिल युद्ध से दोनों देशों के संबंध बिगड़ गए...करगिल युद्ध के बाद हुए आम चुनाव में एक बार फिर एनडीए की सरकार बनी और वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने...पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य बनाने के लिए उन्होंने लगातार पहल की...2001 में पाकिस्तान के सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ को शिखर वार्ता के लिए वाजपेयी ने आगरा बुलाया...अपने कार्यकाल में उन्होंने आर्थिक सुधारों की नीति जारी रखी… देश के शहरों को सड़कों से जोड़ने के लिए बनी स्वर्णिम चतुर्भुज योजना उन्हीं की देन है...2004 के चुनाव में शाइनिंग इंडिया और इंडिया राइजिंग का नारा देते हुए एनडीए ने अक्टूबर के बजाए अप्रैल में चुनाव करा लिए..लेकिनपार्टी सत्ता में नहीं लौट सकी... ख़राब स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी सक्रिय राजनीति से पिछले कई साल से दूर हैं... इसके बावजूद वो सियासत में शुचिता की परंपरा के  भीष्म पितामह हैं...
टूटे हुए सपने की कौन सुने सिसकी...
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी...
हार नहीं मानूंगा…रार नई ठानूंगा...
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं...
गीत नया गाता हूं... गीत नया गाता हूं..

दमदार अदम को सलाम...







खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर...फिर मेरे गीत में मासूमियत कहां होगी...आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में...मैं रहूं या न रहूं भूख मेजबां होगी...भूख और ग़रीबी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले मशहूर शायर अदम गोंडवी नहीं रहे...अदम ने लखनऊ के संजय गांधी पीजीआई अस्पताल में अंतिम सांस ली...64 साल के अदम क्रॉनिक लिवर डिजीज से पीड़ित थे....
जो घर के ठंडे चूल्हे पर फकत खाली पतीली है...
बताओ कैसे लिख दूं...धूप फागुन की नशीली है...
मुशायरों में सिकुड़ा कुर्ता-धोती और गले में सफ़ेद गमछा डाले अदम जब गंवई अंदाज़ में पहुंचते थे....तो लोग बहुत ध्यान नहीं देते थे...लेकिन जब वो ग़ज़ल कविता सुनाते तो लोग हैरान रह जाते थे...
जन्म- 22अक्टूबर 1947
जन्म स्थान- आटा परसपुर, गोंडा (उत्तर प्रदेश)
असली नाम- रामनाथ सिंह
आज़ाद हिंदुस्तान और अदम की उम्र एक है...साहित्य की दुनिया में अदम गोंडवी के नाम से मशहूर रामनाथ सिंह का जन्म यूपी के गोंडा ज़िले में हुआ था...अदम ने हमेशा समाज के दबे-कुचले और कमज़ोर तबके की आवाज़ उठाई...'धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़' जैसे ग़ज़ल संग्रह से उन्होंने ख़ूब नाम कमाया...मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 1998 में दुष्यंत कुमार पुरस्कार से नवाज़ा...अदम ने अपनी क़लम के ज़रिए हमेशा समाज की तल्ख सच्चाई को सामने रखा...
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे...
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे...
अदम उस पंक्ति के शायर हैं...जिनकी शायरी आपको परेशान, बेचैन और विचलित करती है...और सुनने वालों के सामने सवाल बनकर खड़ी हो जाती है...
जो उलझ कर रह गई है फ़ाइलों के जाल में...
गांव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में...
अदम सियासी हालात को ग़ज़ल के ताने-बाने पर चढ़ाकर अनुभव का हिस्सा बना देते हैं...
काजू भुनी प्लेट में व्हिस्की गिलास में...
उतरा है रामराज विधायक निवास में...
आज़ादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह...
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में...
जितनी मानवीय संवेदना और दर्द अदम की शायरी में है..उससे कहीं ज़्यादा संवेदनहीनता उनके साथ बरती गई...मरते दम तक हिंदी संस्थान और उर्दू अकादमी ने उनकी कोई सुध नहीं ली...अदम के सवाल अब भी बने हुए हैं....और उनकी मौत संवेदनहीन सिस्टम पर एक बार फिर सवाल खड़े कर गई...फटे कपड़ों में तन ढांके गुज़रता हो जिधर कोई...समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है...जनकवि अदम गोंडवी को भावभीनी श्रद्धांजलि...