Sunday, August 23, 2009

गणपति बप्पा मोरया





आज से गणेश पूजा का दस दिवसीय उत्सव शुरू हो चुका है.सभी साथियों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं.मैं आज यूपी डेस्क के अपने सहयोगी के यहां डिनर पर आया हूं. बहुत दिनों बाद मौक़ा लगा है किसी मित्र के यहां भोजन का. ख़ैर भोजन के अलावा भी कुछ है बताने के लिए. मैं निज़ामशाही की यादों को संजोए शहर हैदराबाद के बाहरी इलाक़े में रहता हूं. ये जगह वनस्थलीपुरम के नाम से जानी जाती है. जोकि नेशनल हाइवे संख्या-९ पर स्थित है.ये रास्ता विजयवाड़ा को जाता है.और मैं देश के बड़े टेलीविज़न नेटवर्क में शुमार ईटीवी में काम करता हूं.जिसका हेडक्वार्टर इसी हाइवे पर रामोजी फ़िल्मसिटी में है. इन दिनों रोज़ जब मैं बस से अपने ऑफिस के लिए जाता था. तो सुषमा इलाके से थोड़ा आगे चलते ही बड़ी लगन और मेहनत से काम करते कारीगरों को गणपति की प्रतिमा बनाते देखता था. आज उनकी मेहनत सार्थक हो चुकी है.और गणेशजी की भव्य प्रतिमाएं जगह-जगह स्थापित हो चुकी हैं. इस रास्ते से गुजरते हुए दिन-बदिन मैंने इन मूर्तियों में बदलाव होते देखा.पहले उनका सांचा तैयार हुआ.फिर उसमें मूर्तियों को ढाला गया.और सबसे आख़िर में उनका रंग-रोगन किया गया. अब जबकि इन हुनरमंदों का काम ख़त्म हो चुका है.सवाल ये उठता है कि आगे ये कारीगर क्या करेंगे.क्योंकि गणेश पूजा का उत्सव तो अब एक साल बाद ही आएगा. देश में ऐसे ही तमाम लोग हैं जो सीज़नल आयोजन के लिए काम करते हैं.लेकिन बाद में बेकार हो जाते हैं.इन हुनरमंदों को वैकल्पिक काम देने की ज़रूरत है.सबसे सही तरीका है. नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना से इन कारीगरों को जोड़ा जाए.अब बात नरेगा की हो रही है.तो थोड़ा इस पर भी बात कर लें. बीस अगस्त को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जयंती थी.और इस मौक़े पर दिल्ली में नरेगा पर एक राष्ट्रीय वर्कशॉप हुई.कार्यक्रम में देश के ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री सीपी जोशी ने राजीव जी के सपनों को साकार करने की बात कही. राजीव जी का सपना था हर हाथ को मिले काम और घर-घर में हो खुशहाली.ये बात ठीक है कि जोशी जी इस दिशा में काफी गंभीर हैं.और यथासंभव क़दम उठा रहे हैं.लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है नरेगा की निगरानी.जिसके लिए अभी तक कोई ख़ास पहल नहीं की गई है. हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में जो तंत्र विकसित हो चुका है.उसमें इस योजना का दुरुपयोग भी जमकर हो रहा है.ग्राम पंचायत के प्रधान और सचिव मिलकर पैसे की बंदरबांट कर रहे हैं.यहीं नहीं उच्चाधिकारियों की भी इसमें मिलीभगत है.जिस भी ग्रामीण को काम मिल रहा है.उसके पास तक पूरी मज़दूरी पहुंच रही है कि नहीं ये एक अहम सवाल है.ज्यादातर लोग जो काम कर रहे हैं.उनमें अनपढ़ ग्रामीणों की तादाद ज़्यादा है.ऐसे में उनसे कुछ भी बताकर अंगूठा लगवा लिया जाता है. एक और पहलू है मज़दूरी की असमानता का...क्योंकि किसी राज्य में एक कार्यदिवस की मज़दूरी एक सौ चालीस रुपये तक है तो कहीं चालीस रुपये से भी कम है.हालांकि केंद्र सरकार का निर्देश है कि न्यूनतम साठ रुपये मज़दूरी मिलनी ही चाहिए.लेकिन इसकी जांच कौन कर रहा है. सीपी जोशी नरेगा कोर्ट की भी बात कर रहे हैं. लेकिन जोशी जी के सपने देखने से ही काम नहीं चलेगा.कुछ ठोस क़दम उठाते हुए उन्हें अमली जामा पहनाने की भी ज़रूरत है.जिससे नरेगा की तगड़ी मॉनिटरिंग भी हो सके. क्योंकि किसी ने ठीक कहा है कि सपने वो नहीं होते जो आप सोते समय देखते हैं...सपने वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते. अब जोशी जी नींद वाले सपने देखने की उधेड़बुन में हैं.या फिर राजीव जी के सपनों को हक़ीकत में बदलने के लिए जोर-शोर से जुटेंगे. इसका हमें बेसब्री से इंतज़ार रहेगा.

संप्रति- सुधाकर सिंह
टीवी पत्रकार
दिनांक- 23 अगस्त 2009
मोबाइल- 09010823314/ 09396582442

Sunday, August 16, 2009

हम आज़ाद हैं!
















काजू भुनी प्लेट में व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में.


पक्के समाजवादी हैं चाहे तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उज़ले लिबास में.


पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें, संसद यहां की बदल गई है नख्ख़ास में.


आज़ादी का जश्न मनाएं तो किस तरह जो फुटपाथ पर आ गए घर की तलाश में...


देशभर में आज़ादी की बासठवीं सालगिरह का जश्न जोर-शोर से मनाया गया. ऐसे वक्त में मुझे मशहूर शायर अदम गोंडवी की ऊपर लिखी लाइनें फिर से याद आ गईं.एक बार फिर से देशभक्ति का जज्बा लोगों के दिलों में जमकर हिलोरें मारने के बाद ठंडा पड़ गया.हममें से ज्यादातर के लिए ये आज़ादी तो उसी तरह आई जैसे अंधे के हाथ में बटेर.हमने आज़ाद भारत में आंखें खोलीं.और वक्त गुजरने के साथ ही आज़ादी का मतलब अपने-अपने ढंग से निकाला.हम बदस्तूर ढिंढोरा पीटते रहे कि हम आज़ाद हैं.हम आज़ाद हैं.हमारे जैसे बहुत सारे युवा अपने छात्र जीवन के दौरान यहां तक कि अभी भी ट्रेन में मुफ्त सफर करने को अपनी जीत मानते हैं क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम बस में यात्रा के दौरान किसी बड़े-बूढ़े के आने पर अपनी सीट खाली नहीं करते हैं और वो भी तब जबकि हम आसानी से खड़े होकर सफर पूरा कर सकते हैं क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम कहीं भी दैनिक क्रिया से निवृत्त हो लेते हैं क्योंकि हम आज़ाद जो ठहरे.हम टैक्स चुराते हैं क्योंकि हम आज़ाद हैं.हमको बिना ड्राइविंग लाइसेंस के गाड़ी चलाने में मज़ा आता है क्योंकि हम तो ठहरे आज़ाद पंछी. हम लाइन में लगना अपनी शान में गुस्ताख़ी समझते हैं क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम मौका मिलते ही राह चलती किसी लड़की या महिला पर फब्तियां कसने से नहीं चूकते.यहां तक कि थोड़ी सी छूट मिली तो सारी हदें पार करने तक पर उतारू हो जाते हैं क्योंकि हमें प्यारी है अपनी आज़ादी.चाहे सड़क हो या स्कूल.सिनेमाहॉल हो या कोई पब्लिक प्लेस.जहां कहीं भी लिखा होता है कि कृपया यहां ना थूकें हम पान या गुटखे का पीक स्प्रे करने से बाज़ नहीं आते.क्योंकि हम आज़ाद हैं.नो स्मोकिंग जोन में हम कहीं भी सिगरेट सुलगा लेते हैं.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हममें से बहुत सारे लोग बड़े-बुज़ुर्गों को ऐसे समय में अनाथ आश्रम में डाल देते हैं.जब उन्हें सहारे की सख़्त ज़रूरत होती है.क्योंकि उनके रहने से हमारी आज़ादी में खलल पड़ता है फिर भी हम कहते हैं कि हम आज़ाद हैं.उज्जैन से लेकर लखनऊ तक हम गुरुजनों पर करते हैं जानलेवा हमले.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम रिश्वत देते भी हैं और रिश्वत लेते भी हैं.क्योंकि हम आज़ाद हैं.किसी को कुछ भी कह देना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है.क्योंकि हमें देश के संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो दी है.कोई गांधी को शैतान और माफ़िया तक कह डालता है.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम जगदगुरु शंकराचार्य को अकर्मण्य और खुद को कर्मयोगी बताते हैं.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम पंजाब को आतंकवाद की आग में झोंकने वाले जरनैल सिंह भिंडरावाले की फोटो स्वर्ण मंदिर परिसर के म्यूज़ियम में लगाते हैं.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम महात्मा गांधी,सुभाष चंद्र बोस,भगत सिंह,चंद्रशेखर आज़ाद,अशफाक या बिस्मिल के बजाय भ्रष्ट नेताओं की तस्वीर अपने घर में लगाते हैं.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हम बात तो करते हैं शहीदों की चिताओं पर मेले लगने की लेकिन मौक़ा मिलते ही उनके ताबूतों की ख़रीद में भी दलाली खाने से नहीं चूकते हैं.क्योंकि हम आज़ाद हैं.हर साल छब्बीस जनवरी औऱ पंद्रह अगस्त को हम तिरंगा झंडा फहराने की खानापूर्ति करते हैं.औऱ शान से कहते हैं कि झंडा ऊंचा रहे हमारा.क्योंकि हम तो ठहरे आज़ाद हिंदुस्तान के आज़ाद नागरिक.अगर आज़ादी के मायने यही हैं तो ऐसे में सबसे बड़ा सवाल उठता है कि क्या वाक़ई हम आज़ाद हैं??? अपने ही शहर के अज़ीम फ़नकार अली सरदार जाफरी के इन अल्फाज़ के साथ आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की दिली मुबारकबाद...


कौन आज़ाद हुआ किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी...


मेरे सीने में अभी दर्द है महक़ूमी का मादर-ए-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही।




संप्रति- सुधाकर सिंह

टीवी पत्रकार

मोबाइल- 09010823314, 09396582442

दिनांक- 15 अगस्त 2009

Saturday, April 11, 2009

हाथी नहीं गणेश है!




कहते हैं कि सियासत और ज़ंग में सब कुछ जायज है. आज के दौर में इस मिसाल को तमाम राजनीतिक पार्टियां गांठ बांधकर चल रही हैं. लेकिन सत्ता हासिल करने के लिए नये-नये प्रयोगों की बात करें, तो बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी का नाम शिखर पर होगा. तिलक, तराजू और तलवार से लेकर हाथी के ब्रह्मा, विष्णु, महेश बनने तक के सफर में कई मोड़ ऐसे आए, जिनको देश की दशा और दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश की सियासत में टर्निंग प्वाइंट के तौर पर जाना जाएगा.

सत्तर के दशक के आखिरी सालों में दलित सरकारी कर्मचारियों की आवाज़ बने एक गैर सरकारी संगठन का ज़िक्र किए बगैर बसपा की कहानी अधूरी है. दरअसल कांशीराम ने दलित समुदाय का हाल जानने के लिए पूरे हिंदुस्तान का दौरा किया. और १९७८ में बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्यूनिटीज एम्प्लाइज यूनियन यानी बामसेफ बनाया. इसके बाद कांशीराम ने बौद्ध रिसर्च सेंटर (बीआरसी) और दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस-४ की नींव भी रखी. समाज के दबे-कुचले लोगों के हित और सत्ता में सशक्त भागीदारी के मकसद से कांशीराम ने १९८४ में बसपा का गठन किया.

बीएसपी ने १९८४ के लोकसभा चुनाव में सियासी पारी का आगाज किया. लेकिन पार्टी को किसी भी सीट पर सफलता हासिल नहीं हुई. १९८९ के आम चुनाव में बसपा के दो उम्मीदवार संसद की चौखट लांघने में कामयाब रहे. इसके बाद तो पार्टी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. बसपा ने १९८९ में यूपी के विधानसभा चुनाव में १३ सीटों पर कामयाबी हासिल की. १९९१ में पार्टी की सीट घटकर १२ ही रह गई. १९९३ और १९९६ में दोनों बार बसपा के ६७ प्रत्याशी विधायक बनने में सफल रहे. ये वो दौर था जब गठबंधन की राजनीति अपने परवान पर चढ़ रही थी. १९९५ में मायावती जब पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव ने इसे लोकतंत्र का चमत्कार बताया था. हालांकि विवादास्पद स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती और मुलायम सिंह के रास्ते अलग-अलग हो गए.

भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से १९९७ और २००२ में मायावती फिर से सीएम की गद्दी तक पहुंचने में कामयाब रहीं. २००२ के विधासभा चुनाव में बसपा को ९८ सीटों पर सफलता मिली. वहीं १९९९ के आम चुनाव में पार्टी के १४ लोकसभा सदस्य चुने गए. जबकि २००४ में चौदहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में बसपा का आंकड़ा १९ सीटों तक पहुंच गया. यूपी में २००७ के विधानसभा चुनाव में बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया. नतीजतन मायावती चौथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुईं. इस चुनाव में पार्टी को रिकॉर्ड २०६ सीटों पर सफलता हासिल हुई.

कभी उच्च जातियों के ख़िलाफ़ कड़ा तेवर रखने वाली बसपा अब सर्वजन हिताय बहुजन सुखाय की राह पर है.मनुवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आर-पार की लड़ाई लड़ने वाली बसपा का मूड अब थोड़ा सा बदला हुआ है. उदाहरण के तौर पर २००७ के चुनाव में पार्टी के इन दो नारों के बोल काफी कुछ बयां करते हैं. हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा, विष्णु, महेश है.....ब्राह्मण शंख बजाएगा...हाथी बढ़ता जाएगा. पार्टी के मास्टरमाइंड सतीश चंद्र मिश्र की अगुवाई में यूपी के हर ज़िले के गांव-गांव में ब्राह्मण-दलित भाईचारा कमेटी बनाई गई है. जाहिर है लोकतंत्र संख्या बल का खेल है. और इस खेल में ताकत बढ़ाने के लिए बहुत सारी चीजें ताक पर रखनी पड़ती हैं. चाल, चरित्र, चेहरा और ना जाने क्या-क्या बदलना पड़ता है. क्योंकि बड़े फायदे के लिए छोटा नुकसान तो सहना ही पड़ता है. पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में पार्टी ने उत्तर प्रदेश की काफी सीटों पर अगड़ी जाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है. यूपी में सत्ता सुख हासिल करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती की नज़र अब दिल्ली की कुर्सी पर है. और गठबंधन की राजनीति के आज के दौर में ऐसा होना नामुमकिन भी नहीं।


दिनांक- 11-04-2009

संप्रति- सुधाकर सिंह

मोबाइल- 09396582442

क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे


गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या उससे किसी क़ौम की तक़दीर बदल दोगे
जो अक्स उभरता है रसखान की नज़्मों से
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे
जायस से हिंदी की दरिया जो बहके आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे
क्या सच है देशमुख के कहने से विशेषज्ञों
मुमताज़ के ख़्वाबों की ताबीर बदल दोगे
तारीख बताती है तुम तो भी लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी हुई जागीर बदल दोगे।

अदम गोंडवी (जनकवि)

Sunday, April 5, 2009

जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत

काजू भुनी प्लेट में व्हिस्की गिलास में...
उतरा है रामराज विधायक निवास में...
पक्के समाजवादी हैं चाहे तस्कर हों या डकैत...
इतना असर है खादी के उजले लिबास में...
आज़ादी का जश्न मनाएं तो किस तरह...
जो फुटपाथ पर आ गए घर की तलाश में...
पैसे से आप जो चाहे खरीद लें...
संसद यहां की बदल गई है नखास में...
जनता के पास एक ही चारा है बगावत...
ये बात कह रहा हूं मैं पूरे होशो-हवास में...

अदम गोंडवी (जनकवि)

Monday, March 23, 2009

दिलचस्प लड़ाई है श्रावस्ती लोकसभा क्षेत्र में






नवसृजित श्रावस्ती लोकसभा क्षेत्र में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। इस लोकसभा क्षेत्र में तीन विधानसभाएं बलरामपुर जनपद से और दो विधानसभाएं श्रावस्ती जनपद से हैं। बलरामपुर, तुलसीपुर और गैंसड़ी विधानसभा बलरामपुर जनपद से है जबकि इकौना और भिनगा विधानसभा श्रावस्ती जनपद से संबंधित है। नए परिसीमन के कारण चुनावी समीकरण भी काफी बदले हुए हैं। चुनावी परिदृश्य में बसपा से रिज़वान ज़हीर, भाजपा से सत्यदेव सिंह और सपा से रुआब सईदा किस्मत आजमा रही हैं। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री और बलरामपुर सदर सीट से दो बार विधायक रह चुके विनय कुमार पाण्डे को टिकट दिया है । जहां रिज़वान ज़हीर दो बार बलरामपुर सीट से सांसद रह चुके हैं वहीं भाजपा के सत्यदेव सिंह भी इस क्षेत्र से दो बार देश की संसद तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं। यह अलग बात है कि उस दौरान ये क्षेत्र पुराने परिसीमन के तहत बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र के नाम से था। साथ ही इसमें मुस्लिम बाहुल्य उतरौला और सादुल्लाहनगर विधानसभा सीट भी सम्मिलित थी।


रिज़वान ज़हीर को बसपा के परंपरागत वोटों के अलावा राजपूतों औऱ मुस्लिम वोटों का भी समर्थन हासिल है। बलरामपुर इलाके में रिज़वान ज़हीर को मुस्लिम वोट बैंक पर एकाधिकार हासिल है। गौर करने वाली बात है कि २००१ की जनगणना के मुताबिक बलरामपुर देश के माइनॉरिटी कॉन्सेन्ट्रेटेड डिस्ट्रिक्ट्स (घनी अल्पसंख्यक आबादी वाले ज़िले) की श्रेणी में आता है। आंकड़ों के अनुसार बलरामपुर ज़िले की जनसंख्या लगभग १६ लाख ८४ हजार ५६७ है, जिसमें से करीब २६ फीसदी आबादी मुस्लिम समुदाय की है। ऐसे में रिज़वान ज़हीर के मज़बूत सियासी समीकरण को आसानी से समझा जा सकता है। इलाके में रिज़वान ज़हीर किंगमेकर की भूमिका में रहे हैं। बानगी के तौर पर २००७ के विधानसभा चुनाव में बसपा के धीरेंद्र प्रताप सिंह धीरू को बलरामपुर सदर सीट से जिताने में उनकी ख़ास भूमिका रही है। साथ ही सियासी अदावत के चलते मुलायम सरकार में राज्यमंत्री रहे और सपा ज़िलाध्यक्ष शिव प्रताप यादव को गैंसड़ी सीट से बसपा प्रत्याशी अलाउद्दीन के हाथों हरवाने में भी रिज़वान का ही योगदान रहा। अपने मुस्लिम वोट बैंक की ताकत के बूते ही रिज़वान ने १९९८ और १९९९ में लगातार दो बार सपा उम्मीदवार के तौर पर संसद की चौखट लांघने में सफलता हासिल की। २००४ के लोकसभा चुनाव में पार्टी के ज़िलाध्यक्ष शिव प्रताप यादव से विरोध के चलते रिज़वान ने सपा का दामन छोड़ दिया और बागी तेवर दिखाते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव तक को बलरामपुर सीट से लड़ने की चुनौती दे डाली थी। रिज़वान का बयान था कि मैं ऐसा घोड़ा हूं जिस पर हर कोई दांव लगाना चाहता है। ये अलग बात है कि बसपा अम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ते हुए वे भाजपा के बृजभूषण शरण सिंह से करीब ५३ हजार वोटों से पराजित हो गए थे। रिज़वान की हार के पीछे सपा द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी डॉ मोहम्मद उमर को खड़ा किया जाना भी था। चुनाव में उमर को करीब १ लाख ६५ हजार वोट मिले थे, वहीं रिज़वान को लगभग २ लाख १७ हज़ार वोट हासिल हुए थे। जबकि बृजभूषण सिंह ने इकलौते हिंदू प्रत्याशी होने का फायदा उठाते हुए करीब २ लाख ७० हजार वोट हासिल किए और चुनावी वैतरणी पार करने में सफलता पाई।
वहीं सपा प्रत्याशी रुआब सईदा को श्रावस्ती क्षेत्र की दोनों विधानसभओं में मुस्लिम समुदाय के अच्छे ख़ासे तबके का समर्थन हासिल है। रुआब सईदा बहराइच सदर सीट से विधायक और मुलायम सिंह यादव सरकार में मंत्री रहे कद्दावर नेता वकार अहमद शाह की पत्नी हैं। साथ ही सईदा बहराइच लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद भी हैं। सईदा को सपा के समर्पित यादव वोट बैंक और और अन्य पिछड़े वर्ग के वोटों का पूरा भरोसा है। ऐसे में रुआब सईदा को हल्के में लेने की भूल किसी भी उम्मीदवार के लिए घातक साबित हो सकती है। अगर भाजपा के उम्मीदवार सत्यदेव सिंह की बात करें तो तो वे इस क्षेत्र से १९९१ और १९९६ में दो बार सांसद रह चुके हैं। लेकिन उनकी जीत में व्यक्तिगत प्रभाव कम, राम लहर और वोट कमल पर...दृष्टि अटल पर की अंडर करेंट का ज्यादा हाथ रहा था। सत्यदेव सिंह भाजपा के परंपरागत ब्राह्मण और बनिया वोटों पर निर्भर हैं। सत्यदेव को एकमात्र ठाकुर प्रत्याशी होने के नाते इलाके के राजपूत वोटों का भी कुछ हद तक भरोसा है। लेकिन यूपी में भाजपा की कमजोर हालत का असर यहां भी देखने को मिले तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। हालांकि नवसृजित इस क्षेत्र में ब्राह्मण वोटरों की तादाद तीन लाख से ज्यादा है औऱ कांग्रेस ने विनय कुमार पांडे का टिकट फाइनल करके सारे सियासी समीकरण गड़बड़ा दिए हैं । ऐसे में इस सीट पर सपा-बसपा और कांग्रेस के बीच कांटे का दिलचस्प त्रिकोणीय संघर्ष देखने को मिलेगा। इलाके में विनय कुमार पाण्डे की छवि सर्वमान्य और रसूखदार ब्राह्मण नेता की रही है। जातीय दृष्टि से देखा जाय तो श्रावस्ती लोकसभा में ब्राह्मणों और मुस्लिमों की संख्या क़रीब-क़रीब बराबर है। ऐसे में इन्हीं दो जातियों के वोटों के आधार पर ही किसी प्रत्याशी की हार या जीत की इबारत लिखी जाएगी।


संप्रति- सुधाकर सिंह

टीवी पत्रकार

दिनांक- 24-03-2009

मोबाइल- 09396582442


Saturday, March 7, 2009

गांधीवाद बनाम गांधीगीरी










दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल...साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...वाकई में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई में अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए देश को स्वतंत्र तो करा दिया लेकिन आज आज़ादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद गांधी अपने ही देश में बेगाने हो गए हैं,,,न्यूय़ॉर्क में गाधी के जीवन से जुड़ी चीजों की 5 मार्च 2009 को नीलामी हुई...आखिरकार बापू का चश्मा...जेब घड़ी..एक जोड़ी चमड़े की चप्पलें..पीतल की थाली और एक कटोरी नीलाम हो गई...गौर करने वाली बात है कि बापू के इन सामानों को खरीदा शराब व्यवसाई विजय माल्या ने...माल्या देश की जानी-मानी शराब कंपनी यूनाइटेड ब्रेवरीज के मालिक हैं...यानी गांधी जी ने जिस एक चीज की ज़िंदगी भर मुखालफत की...उसी को बनाने वाली कंपनी के मालिक ने गांधीगीरी दिखाते हुए उनके व्यक्तिगत सामानों को क़रीब नौ करोड़ रुपये में खरीदा..खैर गांधीगीरी और नेतागीरी का नया घालमेल आजकल देखने को मिल रहा है तो माल्या ने गांधी की विरासत को खरीद लिया तो उसमें हर्ज ही क्या है...अब सवाल उठता है कि क्या सरकार के पास गांधी की विरासत को सहेजने के लिए नौ करोड़ रुपये नहीं हैं..या सरकार को इस विरासत की हिफाजत करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं है...ज्यादा दूर मत जाइये..देश की ही बात कर लेते हैं...कोदाल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में गांधी संग्रहालय से बापू की छह हजार से ज्यादा चिट्ठियां गायब हो चुकी हैं...लेकिन सरकार ने अभी तक इस बारे में कोई कार्रवाई नहीं की है..और करे भी क्यों...इससे सरकार को कोई राजनीतिक नफा-नुकसान होने वाला नहीं है...गांधी तो राजनीति के लिए हैं..उनका नाम अक्सर लिया जाता है...जनता को बरगलाने के लिए..खादी की लिबास में बड़े-बड़े राजनेता चुनावी मंच से गांधी के आदर्शों पर चलने की बात करते हैं..यानी दिन में रघुपति राघव राजाराम...लेकिन शाम होते ही ढाई सौ ग्राम के फेर में पड़कर बापू को भूलने में पल भर भी नहीं लगाते हैं..चुनावी बिगुल बज चुका है..आने वाले दिनों में गांधी की विरासत पर सियासी पार्टियां अपना-अपना हक जताने की पूरी उधेड़बुन में रहेंगी...क्योंकि लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार शुरू हो चुका है...तो जाहिर है गांधीवाद और गांधीगीरी में कुछ तो फर्क रहेगा ही...






सुधाकर सिंह

संप्रति- टीवी पत्रकार

07-3-2009

मोबाइल- 09396582442

Saturday, February 28, 2009

मंजिलों से दूर हो गए


(विकास जी हमारी मित्रमंडली में पडरौना का प्रतिनिधित्व करते हैं...बुद्ध की निर्वाणस्थली कुशीनगर से केवल १८ किलोमीटर की दूरी पर स्थित पडरौना के विकास जी बहुत कुछ कहना चाहते हैं..और आने वाले दिनों में अपनी मदहोश करने वाली लेखनी से इस बगिया को गुलज़ार करेंगे...इनका कवि हृदय बहुत सारे अनछुए पहलुओं पर रोशनी डालता है...तो आइये देखते हैं क्या कुछ बयां किया है विकास जी ने अपने इस पहले इजहार-ए-अंजुमन में )

गम इस बात का नहीं वो हमसे दूर हो गए..

हमसे मिलने के बाद और मशहूर हो गए..

सुना था अपने बुजुर्गों को ये कहते हुए...

सरहद के सीने पर उभरी जो लकीर हम अपनों से बहुत दूर हो गए..

देश तो अपना है मगर लोग पराए से लगते हैं यहां...

ये भी सुना है खिड़कियां दरवाजे पहचानने से मज़बूर हो गए..

जात-पात का ये कैसा जाल फेंका इन नेताओं ने...

देखा है आज भी उन्हें इस गली से साथ-साथ निकलते हुए...

क्या दो जून की रोटी कमाना ही था मकसद विकास का...

कदम ठहर से गए और मंजिलों से दूर हो गए....

विकास यादव

संप्रति- टीवी पत्रकार

तारीख- २८-०२-२००९

मोबाइल- ०९७०४३९०४८५