Monday, December 26, 2011

राजनीति के अजातशत्रु



धरती को बौने नहीं ऊंचे कद के इंसानों की ज़रूरत है...
लेकिन इतने ऊंचे भी नहीं कि कहीं कोई दूब न जमे...
कोई कांटा न चुभे...मेरे प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना...
ग़ैरों को गले न लगा सकूं...ऐसी रुखाई कभी मत देना...
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति के भीष्म पितामह हैं...और मैं उनसे अपील करता हूं कि वो न्यूक्लियर डील के समर्थन में आगे आएं...2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर लेफ्ट का विरोध झेल रहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बीजेपी से सहयोग मांगते हुए ये अपील की थी... दरअसल वाजपेयी सियासत में आम सहमति के अटल पैरोकार रहे हैं...यही वजह है कि कभी उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र 51 और 49 का खेल नहीं है...2002 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने जिस तरह सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह के साथ बैठक कर डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर आम सहमति बनाई...वो सहमति की सियासत की बेहतरीन मिसाल है...
जन्म- 25 दिसंबर 1924
जन्म स्थान- ग्वालियर(मध्य प्रदेश)
मध्य प्रदेश के ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 को जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी की शुरुआती पढ़ाई ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हुई...जबकि आगे की पढ़ाई उन्होंने कानपुर के डीएवी कॉलेज सेकी...कॉलेज जीवन से ही वाजपेयी को कविता लिखने का शौक था...जो आगे भी जारी रहा...
आओ फिर से दिया जलाएं...
हम पड़ाव को समझें मंज़िल...
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल...
वर्तमान के मोहजाल में...
आने वाला कल न भुलाएं...
आओ फिर से दिया जलाएं...
1957 में पहली बार वो जनसंघ उम्मीदवार के रूप में यूपी की बलरामपुर सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे...संसद में अटल ने अपनी पहचान एक कुशल वक्ता के रूप में बनाई...कश्मीर मुद्दे पर बेबाक राय रखते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना ऐतिहासिक भूल थी...उनकी भाषण शैली से प्रभावित होकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा था कि एक दिन ये युवक भारत का प्रधानमंत्री बनेगा...
आपातकाल के बाद जब मोरारजी देसाई की अगुवाई में सरकार बनी..तो वाजपेयी को विदेश मंत्री बनाया गया...4 अक्टूबर 1977 को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में यादगार भाषण दिया...इससे पहले देश के किसी नागरिक ने हिंदी का इस्तेमाल इस मंच से नहीं किया था...1980 में भारतीय जनसंघ के नए स्वरूप भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ...और वाजपेयी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक रहे... वाजपेयी लगातार 4 बार लखनऊ से सांसद रहे...और वो लोकसभा के इकलौते सदस्य हैं...जो 4 अलग-अलग राज्यों यूपी, एमपी, गुजरात और दिल्ली से चुने जा चुके हैं...1996 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी...तो 21 मई को वो पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने...हालांकि ये कार्यकाल 13 दिन का ही था…. मार्च 1998 में अटलजी दूसरी बार देश के प्रधानमंत्रीबने...दूसरे कार्यकाल में उन्होंने विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ देश के भविष्य को जोड़ा...11 और 13 मई 1998 को पोकरण में परमाणु परीक्षण के ज़रिए देश एटमी पावर से लैस बन गया...प्रतिबंधों की परवाह किए बिना वाजपेयी ने जय जवान, जय किसान के नारे में जय विज्ञान को जोड़ते हुए अमेरिका को भी चौंका दिया...हालांकि वो परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के हमेशा ख़िलाफ़ रहे...हिरोशिमा की पीड़ा नाम से लिखी कविता में वाजपेयी ने अपना दर्द बयां किया है...
किसी रात को मेरी नींद अचानक उचट जाती है...
आंख खुल जाती है...मैं सोचने लगता हूं कि...
जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का आविष्कार किया था...
वे हिरोशिमा-नगासाकी के भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर...
रात को कैसे सोए होंगे?
पाकिस्तान से संबंध सुधारने की दिशा में फरवरी 1999 में उनकी बस यात्रा के क़दम की काफ़ी प्रशंसा हुई...हालांकि बाद में करगिल युद्ध से दोनों देशों के संबंध बिगड़ गए...करगिल युद्ध के बाद हुए आम चुनाव में एक बार फिर एनडीए की सरकार बनी और वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने...पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य बनाने के लिए उन्होंने लगातार पहल की...2001 में पाकिस्तान के सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ को शिखर वार्ता के लिए वाजपेयी ने आगरा बुलाया...अपने कार्यकाल में उन्होंने आर्थिक सुधारों की नीति जारी रखी… देश के शहरों को सड़कों से जोड़ने के लिए बनी स्वर्णिम चतुर्भुज योजना उन्हीं की देन है...2004 के चुनाव में शाइनिंग इंडिया और इंडिया राइजिंग का नारा देते हुए एनडीए ने अक्टूबर के बजाए अप्रैल में चुनाव करा लिए..लेकिनपार्टी सत्ता में नहीं लौट सकी... ख़राब स्वास्थ्य के चलते वाजपेयी सक्रिय राजनीति से पिछले कई साल से दूर हैं... इसके बावजूद वो सियासत में शुचिता की परंपरा के  भीष्म पितामह हैं...
टूटे हुए सपने की कौन सुने सिसकी...
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी...
हार नहीं मानूंगा…रार नई ठानूंगा...
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं...
गीत नया गाता हूं... गीत नया गाता हूं..

दमदार अदम को सलाम...







खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर...फिर मेरे गीत में मासूमियत कहां होगी...आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में...मैं रहूं या न रहूं भूख मेजबां होगी...भूख और ग़रीबी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले मशहूर शायर अदम गोंडवी नहीं रहे...अदम ने लखनऊ के संजय गांधी पीजीआई अस्पताल में अंतिम सांस ली...64 साल के अदम क्रॉनिक लिवर डिजीज से पीड़ित थे....
जो घर के ठंडे चूल्हे पर फकत खाली पतीली है...
बताओ कैसे लिख दूं...धूप फागुन की नशीली है...
मुशायरों में सिकुड़ा कुर्ता-धोती और गले में सफ़ेद गमछा डाले अदम जब गंवई अंदाज़ में पहुंचते थे....तो लोग बहुत ध्यान नहीं देते थे...लेकिन जब वो ग़ज़ल कविता सुनाते तो लोग हैरान रह जाते थे...
जन्म- 22अक्टूबर 1947
जन्म स्थान- आटा परसपुर, गोंडा (उत्तर प्रदेश)
असली नाम- रामनाथ सिंह
आज़ाद हिंदुस्तान और अदम की उम्र एक है...साहित्य की दुनिया में अदम गोंडवी के नाम से मशहूर रामनाथ सिंह का जन्म यूपी के गोंडा ज़िले में हुआ था...अदम ने हमेशा समाज के दबे-कुचले और कमज़ोर तबके की आवाज़ उठाई...'धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़' जैसे ग़ज़ल संग्रह से उन्होंने ख़ूब नाम कमाया...मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 1998 में दुष्यंत कुमार पुरस्कार से नवाज़ा...अदम ने अपनी क़लम के ज़रिए हमेशा समाज की तल्ख सच्चाई को सामने रखा...
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे...
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे...
अदम उस पंक्ति के शायर हैं...जिनकी शायरी आपको परेशान, बेचैन और विचलित करती है...और सुनने वालों के सामने सवाल बनकर खड़ी हो जाती है...
जो उलझ कर रह गई है फ़ाइलों के जाल में...
गांव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में...
अदम सियासी हालात को ग़ज़ल के ताने-बाने पर चढ़ाकर अनुभव का हिस्सा बना देते हैं...
काजू भुनी प्लेट में व्हिस्की गिलास में...
उतरा है रामराज विधायक निवास में...
आज़ादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह...
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में...
जितनी मानवीय संवेदना और दर्द अदम की शायरी में है..उससे कहीं ज़्यादा संवेदनहीनता उनके साथ बरती गई...मरते दम तक हिंदी संस्थान और उर्दू अकादमी ने उनकी कोई सुध नहीं ली...अदम के सवाल अब भी बने हुए हैं....और उनकी मौत संवेदनहीन सिस्टम पर एक बार फिर सवाल खड़े कर गई...फटे कपड़ों में तन ढांके गुज़रता हो जिधर कोई...समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है...जनकवि अदम गोंडवी को भावभीनी श्रद्धांजलि...

Thursday, November 24, 2011

एक थप्पड़...जनता के नाम...

(दिल्ली में आज एक कार्यक्रम के दौरान बढ़ती महंगाई से गुस्साए एक शख्स ने केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को थप्पड़ जड़ दिया...पवार इफको के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने एनडीएमसी सेंटर पहुंचे थे....तभी हरविंदर सिंह नाम के शख्स ने पवार को थप्पड़ रसीद कर दिया...इस हमले से एक बार फिर साफ़ हो गया कि महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जनता का ग़ुस्सा बर्दाश्त से बाहर हो चुका है...)
एक थप्पड़...महंगाई के नाम...एक थप्पड़...उन किसानों के नाम....जो क़र्ज़ के बोझ तले ख़ुदकुशी करने पर मजबूर हो गए...एक थप्पड़...उस मजबूर जनता के नाम...जिसकी सुनने वाला कोई नहीं...एक थप्पड़ उस भ्रष्टाचार के नाम...जिसकी जड़ें सिस्टम में गहरे से पैठ कर चुकी हैं...दरअसल ये थप्पड़ उस अवाम के ग़ुस्से का इज़हार है...जो नेताओं के शह और मात के खेल में ख़ुद को ठगा महसूस कर रही है...ये थप्पड़ महंगाई के नाम इसलिए है क्योंकि इसको रोकने की कोई कोशिश रंग लाती नहीं दिख रही है...हर बार एक नई तारीख़ दे दी जाती है...इस बार वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने मार्च का महीना मुकर्रर किया है...ये थप्पड़ किसानों के नाम इसलिए है...क्योंकि उनको फसल की वाजिब क़ीमत नहीं मिल रही है...महाराष्ट्र में कपास के समर्थन मूल्य पर कोहराम मचा है...लेकिन किसानों की सुनता ही कौन है...किसानों का कब्रिस्तान बन चुका है विदर्भ...इस साल के पहले 6 महीनों में वहां 79 किसानों ने ख़ुदकुशी कर ली...जबकि 2010 में 275 और 2009 में 263 किसानों ने क़र्ज़ के बोझ तले जान दे दी...ये थप्पड़ मजबूर जनता के नाम इसलिए है...क्योंकि महंगाई और भ्रष्टाचार पर न तो कोई रोक लग रही है...और न ही कोई इस पर साफ़-साफ़ बोलने को तैयार है...हिंदुस्तान की अवाम सियासत से कितनी तंग आ चुकी है...उसकी नज़ीर है ये थप्पड़... ज़ाहिर है जनता अब जूता उठाने के लिए जहमत करने के बजाए...सीधे थप्पड़ रसीद करना आसान समझ रही है...

Saturday, March 19, 2011

फरक्का नहीं फ़ज़ीहत मेल...




रेल बजट और आम बजट आने के कुछ दिनों बाद मुझे एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली से लखनऊ जाना था. अब अचानक से किसी अच्छी ट्रेन में तो टिकट मिलने से रहा लिहाजा जैसे-तैसे फरक्का मेल का टिकट लिया. पहली बार इस ट्रेन से जा रहा था इस वजह से कुछ लोगों से फीडबैक भी लिया. पता चला कि आज तक तो कभी लखनऊ वक्त पर पहुंची नहीं. ख़ैर मेरे पास कोई चारा भी नहीं था. कोढ़ में खाज का काम किया रेल रोको आंदोलन ने. पता चला कि मुरादाबाद ट्रैक पर काफूरपुर के पास एक समाज के लोग केन्द्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलित हैं. पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचकर ट्रेन की इंक्वायरी की तो थोड़ा जान में जान आई. मालूम हुआ कि ट्रेन अलीगढ़-हाथरस के रूट से चलती है और सही समय पर प्लेटफॉर्म से छूटेगी. थोड़ा सा औऱ सहारा मिला जब जाना कि फरक्का ट्रेन पश्चिम बंगाल के मालदा टाउन तक जाती है. ऐसे में मैंने अनुमान लगाया कि दीदी का गृहराज्य होने की वजह से ट्रेन ज़्यादा लेट नहीं होनी चाहिए.
                                                             दिल्ली से ट्रेन राइट टाइम पर छूटी. मेरे सामने की सीटें खाली थीं. ग़ाज़ियाबाद तक जाने वाले तीन युवक उसी सीट पर आराम फरमाने लगे. एक तो जूता पहने ही सोने लगा. रास्ते में उसके एक साथी ने जगाना चाहा तो बोला मुझे पता है कि अभी ग़ाज़ियाबाद नहीं आया. हिंडन नदी पड़ेगी तो मैं ख़ुद-बख़ुद उठ जाऊंगा. बताते चलें कि हिंडन नदी ग़ाज़ियाबाद में है. हिंडन भी पार हुई और ग़ाज़ियाबाद भी आ गया. अब बारी थी असली स्क्रिप्ट की. युवक तो वहां उतर गए लेकिन खाली बर्थों के असली मालिक तो अब ट्रेन में चढ़े थे. ख़ुद को कांस्टेबल बताने वाले एक महाशय ट्रेन की बोगी में कुछ ऐसा घुसे कि एक वेंडर के हाथ से पूड़ी-सब्जी का पैकेट नीचे गिरा बैठे. पहले तो रौब गांठा, ट्रेन में भीड़ की दुहाई दी लेकिन वो कोई ऐरा-ग़ैरा थोड़े था. ऐसे में वेंडर के सामने सरेंडर करने में ही कांस्टेबल महोदय ने अपनी भलाई समझी. हां एक चालाकी ज़रूर खेली उसे सौ का नोट देकर. सोचा था फुटकर के फेर में फंसकर वेंडर पैसा वापस कर देगा, लेकिन वेंडर तो इसके आदी होते हैं. पलक झपकते ही उसने 90 रुपये गिनकर कांस्टेबल साहब को दे दिए. खाकी के खिलाड़ी के चेहरा देखने लायक था. अपना दुखड़ा मुझसे कहने लगे, लेकिन मेरी तरफ से शुष्क प्रतिक्रिया देखकर चुप हो गए.


ट्रेन अब ग़ाज़ियाबाद से चल चुकी थी. मेरी बर्थ मिडिल थी जबकि मेरे सामने की सीट पर बैठने वाले जो तीन लोग चढ़े थे उनके पास मेरे तरफ की निचली और ऊपर की बर्थ थी. ये एक बंगाली परिवार था- मां, बाप और बेटा. मुकाम मालदा टाउन. दरअसल मैं निचली बर्थ पर चद्दर बिछाकर लेट गया था. बंगाली परिवार ने अपना टिकट दिखाकर मुझसे सीट नंबर की तस्दीक की. वो तीनों लोग अपना सामान रखकर सोने का इंतज़ाम करने लगे. बेटा तो सबसे ऊपर की बर्थ पर चला गया जबकि मां और बाप मेरे सामने की निचली और बीच की बर्थ पर लेटने जा रहे थे. इसी दौरान टीटी महोदय भी पहुंच गए. टिकट देखने के बाद बंगाली परिवार को अपनी बर्थ पता चल गई. पता नहीं क्यों युवक की मां अचानक ही मेरे ऊपर बरसने लगीं. बोलीं कि हम लोगों को अनपढ़-गंवार समझते हो, ग़लत सीट नंबर बताते हो और जाने क्या-क्या. मैंने कहा कि आप लोगों ने मुझसे सीट के बारे में पूछा और मैंने कहा कि यहीं है. अब भला इसमें मेरी क्या ग़लती. ख़ैर किसी तरह से रात बीती. रात की नींद तो गाना बजाने वालों ने हराम कर दी थी. कभी मुन्नी बदनाम तो कभी तेरे नाम ख़ुद भी सुनते रहे और सहयात्रियों को भी जबरन सुनाते रहे. सुबह हुई और गरम पानी की बढ़िया चाय का ट्रेन में आगमन हो चुका था. मैंने भी मन मसोसकर चाय को गले से उतारा. इसी दौरान मेरी निगाह साइड लोअर सीट पर बैठे एक दिलचस्प शख़्स पर पड़ी. चेहरे से ही अनुभवी यात्री मालूम पड़ रहे थे. बगल में बैठे एक सहयात्री ने सवाल दागा कि कहां तक चल रहे हैं भाई साहब...जवाब में वो महानुभाव बोले आधी दूरी तक. दूसरे ने फिर पूछा कि वो कैसे...तो कहने लगे कि बनारस तक की दूरी आधी हुई. अब ये बात और है कि उनको सुल्तानपुर तक ही जाना था. उनके तजुर्बे का मैं भी कायल हो गया और पूछ ही बैठा कि ये ट्रेन (फरक्का) कभी समय पर पहुंचती थी या नहीं. सुनते ही उनकी आंखों में मानो चमक आ गई. बोले कि भाई साहब 30 साल से ज़्यादा अरसे से इस ट्रेन से चल रहा हूं. 1985-86 में ये राइट टाइम रहा करती थी. आख़िरकार सुबह सवा 10 बजे के क़रीब में लखनऊ स्टेशन पहुंच ही गया. फरक्का अपने नियत समय से महज तीन घंटे ही लेट थी. ट्रेन से उतरते वक्त बंगाली परिवार के मुखिया ने मुझसे पूछा कि लखनऊ में ट्रेन कितनी देर रुकेगी. मैंने कहा कि वैसे तो 10-15 मिनट रुकनी चाहिए, लेकिन लखनऊ तो बड़ा स्टेशन है इसलिए देर तक भी रुक सकती है. हां उनको ये नहीं बताया कि यूपी में समाजवादी पार्टी के राज्य सरकार के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन की वजह से सपा कार्यकर्ता ट्रेन को कहीं भी खड़ी कर सकते हैं. ख़ैर मैं तो अपने मुकाम लखनऊ पहुंच चुका था इसलिए थोड़ा बेपरवाह होकर प्रीपेड टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़ चला. मेरे ख्याल से फरक्का मेल में ये मेरी पहली और आख़िरी यात्रा साबित होगी...
 
संप्रति- सुधाकर सिंह


दिनांक- 19-03-2011


मोबाइल- 8860764647

Sunday, March 13, 2011

किसी की तरफ नहीं देखा...

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ नहीं देखा...
तुम्हारे बाद किसी की तरफ नहीं देखा...
ये सोचकर कि तेरा इंतज़ार लाज़िम है...
तमाम उम्र घड़ी की तरफ नहीं देखा...

                                                   मुनव्वर राना...