Monday, March 23, 2009

दिलचस्प लड़ाई है श्रावस्ती लोकसभा क्षेत्र में






नवसृजित श्रावस्ती लोकसभा क्षेत्र में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। इस लोकसभा क्षेत्र में तीन विधानसभाएं बलरामपुर जनपद से और दो विधानसभाएं श्रावस्ती जनपद से हैं। बलरामपुर, तुलसीपुर और गैंसड़ी विधानसभा बलरामपुर जनपद से है जबकि इकौना और भिनगा विधानसभा श्रावस्ती जनपद से संबंधित है। नए परिसीमन के कारण चुनावी समीकरण भी काफी बदले हुए हैं। चुनावी परिदृश्य में बसपा से रिज़वान ज़हीर, भाजपा से सत्यदेव सिंह और सपा से रुआब सईदा किस्मत आजमा रही हैं। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री और बलरामपुर सदर सीट से दो बार विधायक रह चुके विनय कुमार पाण्डे को टिकट दिया है । जहां रिज़वान ज़हीर दो बार बलरामपुर सीट से सांसद रह चुके हैं वहीं भाजपा के सत्यदेव सिंह भी इस क्षेत्र से दो बार देश की संसद तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं। यह अलग बात है कि उस दौरान ये क्षेत्र पुराने परिसीमन के तहत बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र के नाम से था। साथ ही इसमें मुस्लिम बाहुल्य उतरौला और सादुल्लाहनगर विधानसभा सीट भी सम्मिलित थी।


रिज़वान ज़हीर को बसपा के परंपरागत वोटों के अलावा राजपूतों औऱ मुस्लिम वोटों का भी समर्थन हासिल है। बलरामपुर इलाके में रिज़वान ज़हीर को मुस्लिम वोट बैंक पर एकाधिकार हासिल है। गौर करने वाली बात है कि २००१ की जनगणना के मुताबिक बलरामपुर देश के माइनॉरिटी कॉन्सेन्ट्रेटेड डिस्ट्रिक्ट्स (घनी अल्पसंख्यक आबादी वाले ज़िले) की श्रेणी में आता है। आंकड़ों के अनुसार बलरामपुर ज़िले की जनसंख्या लगभग १६ लाख ८४ हजार ५६७ है, जिसमें से करीब २६ फीसदी आबादी मुस्लिम समुदाय की है। ऐसे में रिज़वान ज़हीर के मज़बूत सियासी समीकरण को आसानी से समझा जा सकता है। इलाके में रिज़वान ज़हीर किंगमेकर की भूमिका में रहे हैं। बानगी के तौर पर २००७ के विधानसभा चुनाव में बसपा के धीरेंद्र प्रताप सिंह धीरू को बलरामपुर सदर सीट से जिताने में उनकी ख़ास भूमिका रही है। साथ ही सियासी अदावत के चलते मुलायम सरकार में राज्यमंत्री रहे और सपा ज़िलाध्यक्ष शिव प्रताप यादव को गैंसड़ी सीट से बसपा प्रत्याशी अलाउद्दीन के हाथों हरवाने में भी रिज़वान का ही योगदान रहा। अपने मुस्लिम वोट बैंक की ताकत के बूते ही रिज़वान ने १९९८ और १९९९ में लगातार दो बार सपा उम्मीदवार के तौर पर संसद की चौखट लांघने में सफलता हासिल की। २००४ के लोकसभा चुनाव में पार्टी के ज़िलाध्यक्ष शिव प्रताप यादव से विरोध के चलते रिज़वान ने सपा का दामन छोड़ दिया और बागी तेवर दिखाते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव तक को बलरामपुर सीट से लड़ने की चुनौती दे डाली थी। रिज़वान का बयान था कि मैं ऐसा घोड़ा हूं जिस पर हर कोई दांव लगाना चाहता है। ये अलग बात है कि बसपा अम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ते हुए वे भाजपा के बृजभूषण शरण सिंह से करीब ५३ हजार वोटों से पराजित हो गए थे। रिज़वान की हार के पीछे सपा द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी डॉ मोहम्मद उमर को खड़ा किया जाना भी था। चुनाव में उमर को करीब १ लाख ६५ हजार वोट मिले थे, वहीं रिज़वान को लगभग २ लाख १७ हज़ार वोट हासिल हुए थे। जबकि बृजभूषण सिंह ने इकलौते हिंदू प्रत्याशी होने का फायदा उठाते हुए करीब २ लाख ७० हजार वोट हासिल किए और चुनावी वैतरणी पार करने में सफलता पाई।
वहीं सपा प्रत्याशी रुआब सईदा को श्रावस्ती क्षेत्र की दोनों विधानसभओं में मुस्लिम समुदाय के अच्छे ख़ासे तबके का समर्थन हासिल है। रुआब सईदा बहराइच सदर सीट से विधायक और मुलायम सिंह यादव सरकार में मंत्री रहे कद्दावर नेता वकार अहमद शाह की पत्नी हैं। साथ ही सईदा बहराइच लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद भी हैं। सईदा को सपा के समर्पित यादव वोट बैंक और और अन्य पिछड़े वर्ग के वोटों का पूरा भरोसा है। ऐसे में रुआब सईदा को हल्के में लेने की भूल किसी भी उम्मीदवार के लिए घातक साबित हो सकती है। अगर भाजपा के उम्मीदवार सत्यदेव सिंह की बात करें तो तो वे इस क्षेत्र से १९९१ और १९९६ में दो बार सांसद रह चुके हैं। लेकिन उनकी जीत में व्यक्तिगत प्रभाव कम, राम लहर और वोट कमल पर...दृष्टि अटल पर की अंडर करेंट का ज्यादा हाथ रहा था। सत्यदेव सिंह भाजपा के परंपरागत ब्राह्मण और बनिया वोटों पर निर्भर हैं। सत्यदेव को एकमात्र ठाकुर प्रत्याशी होने के नाते इलाके के राजपूत वोटों का भी कुछ हद तक भरोसा है। लेकिन यूपी में भाजपा की कमजोर हालत का असर यहां भी देखने को मिले तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। हालांकि नवसृजित इस क्षेत्र में ब्राह्मण वोटरों की तादाद तीन लाख से ज्यादा है औऱ कांग्रेस ने विनय कुमार पांडे का टिकट फाइनल करके सारे सियासी समीकरण गड़बड़ा दिए हैं । ऐसे में इस सीट पर सपा-बसपा और कांग्रेस के बीच कांटे का दिलचस्प त्रिकोणीय संघर्ष देखने को मिलेगा। इलाके में विनय कुमार पाण्डे की छवि सर्वमान्य और रसूखदार ब्राह्मण नेता की रही है। जातीय दृष्टि से देखा जाय तो श्रावस्ती लोकसभा में ब्राह्मणों और मुस्लिमों की संख्या क़रीब-क़रीब बराबर है। ऐसे में इन्हीं दो जातियों के वोटों के आधार पर ही किसी प्रत्याशी की हार या जीत की इबारत लिखी जाएगी।


संप्रति- सुधाकर सिंह

टीवी पत्रकार

दिनांक- 24-03-2009

मोबाइल- 09396582442


Saturday, March 7, 2009

गांधीवाद बनाम गांधीगीरी










दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल...साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...वाकई में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई में अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए देश को स्वतंत्र तो करा दिया लेकिन आज आज़ादी के साठ साल बीत जाने के बावजूद गांधी अपने ही देश में बेगाने हो गए हैं,,,न्यूय़ॉर्क में गाधी के जीवन से जुड़ी चीजों की 5 मार्च 2009 को नीलामी हुई...आखिरकार बापू का चश्मा...जेब घड़ी..एक जोड़ी चमड़े की चप्पलें..पीतल की थाली और एक कटोरी नीलाम हो गई...गौर करने वाली बात है कि बापू के इन सामानों को खरीदा शराब व्यवसाई विजय माल्या ने...माल्या देश की जानी-मानी शराब कंपनी यूनाइटेड ब्रेवरीज के मालिक हैं...यानी गांधी जी ने जिस एक चीज की ज़िंदगी भर मुखालफत की...उसी को बनाने वाली कंपनी के मालिक ने गांधीगीरी दिखाते हुए उनके व्यक्तिगत सामानों को क़रीब नौ करोड़ रुपये में खरीदा..खैर गांधीगीरी और नेतागीरी का नया घालमेल आजकल देखने को मिल रहा है तो माल्या ने गांधी की विरासत को खरीद लिया तो उसमें हर्ज ही क्या है...अब सवाल उठता है कि क्या सरकार के पास गांधी की विरासत को सहेजने के लिए नौ करोड़ रुपये नहीं हैं..या सरकार को इस विरासत की हिफाजत करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं है...ज्यादा दूर मत जाइये..देश की ही बात कर लेते हैं...कोदाल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में गांधी संग्रहालय से बापू की छह हजार से ज्यादा चिट्ठियां गायब हो चुकी हैं...लेकिन सरकार ने अभी तक इस बारे में कोई कार्रवाई नहीं की है..और करे भी क्यों...इससे सरकार को कोई राजनीतिक नफा-नुकसान होने वाला नहीं है...गांधी तो राजनीति के लिए हैं..उनका नाम अक्सर लिया जाता है...जनता को बरगलाने के लिए..खादी की लिबास में बड़े-बड़े राजनेता चुनावी मंच से गांधी के आदर्शों पर चलने की बात करते हैं..यानी दिन में रघुपति राघव राजाराम...लेकिन शाम होते ही ढाई सौ ग्राम के फेर में पड़कर बापू को भूलने में पल भर भी नहीं लगाते हैं..चुनावी बिगुल बज चुका है..आने वाले दिनों में गांधी की विरासत पर सियासी पार्टियां अपना-अपना हक जताने की पूरी उधेड़बुन में रहेंगी...क्योंकि लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार शुरू हो चुका है...तो जाहिर है गांधीवाद और गांधीगीरी में कुछ तो फर्क रहेगा ही...






सुधाकर सिंह

संप्रति- टीवी पत्रकार

07-3-2009

मोबाइल- 09396582442