Saturday, April 11, 2009

हाथी नहीं गणेश है!




कहते हैं कि सियासत और ज़ंग में सब कुछ जायज है. आज के दौर में इस मिसाल को तमाम राजनीतिक पार्टियां गांठ बांधकर चल रही हैं. लेकिन सत्ता हासिल करने के लिए नये-नये प्रयोगों की बात करें, तो बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी का नाम शिखर पर होगा. तिलक, तराजू और तलवार से लेकर हाथी के ब्रह्मा, विष्णु, महेश बनने तक के सफर में कई मोड़ ऐसे आए, जिनको देश की दशा और दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश की सियासत में टर्निंग प्वाइंट के तौर पर जाना जाएगा.

सत्तर के दशक के आखिरी सालों में दलित सरकारी कर्मचारियों की आवाज़ बने एक गैर सरकारी संगठन का ज़िक्र किए बगैर बसपा की कहानी अधूरी है. दरअसल कांशीराम ने दलित समुदाय का हाल जानने के लिए पूरे हिंदुस्तान का दौरा किया. और १९७८ में बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्यूनिटीज एम्प्लाइज यूनियन यानी बामसेफ बनाया. इसके बाद कांशीराम ने बौद्ध रिसर्च सेंटर (बीआरसी) और दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस-४ की नींव भी रखी. समाज के दबे-कुचले लोगों के हित और सत्ता में सशक्त भागीदारी के मकसद से कांशीराम ने १९८४ में बसपा का गठन किया.

बीएसपी ने १९८४ के लोकसभा चुनाव में सियासी पारी का आगाज किया. लेकिन पार्टी को किसी भी सीट पर सफलता हासिल नहीं हुई. १९८९ के आम चुनाव में बसपा के दो उम्मीदवार संसद की चौखट लांघने में कामयाब रहे. इसके बाद तो पार्टी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. बसपा ने १९८९ में यूपी के विधानसभा चुनाव में १३ सीटों पर कामयाबी हासिल की. १९९१ में पार्टी की सीट घटकर १२ ही रह गई. १९९३ और १९९६ में दोनों बार बसपा के ६७ प्रत्याशी विधायक बनने में सफल रहे. ये वो दौर था जब गठबंधन की राजनीति अपने परवान पर चढ़ रही थी. १९९५ में मायावती जब पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव ने इसे लोकतंत्र का चमत्कार बताया था. हालांकि विवादास्पद स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती और मुलायम सिंह के रास्ते अलग-अलग हो गए.

भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से १९९७ और २००२ में मायावती फिर से सीएम की गद्दी तक पहुंचने में कामयाब रहीं. २००२ के विधासभा चुनाव में बसपा को ९८ सीटों पर सफलता मिली. वहीं १९९९ के आम चुनाव में पार्टी के १४ लोकसभा सदस्य चुने गए. जबकि २००४ में चौदहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में बसपा का आंकड़ा १९ सीटों तक पहुंच गया. यूपी में २००७ के विधानसभा चुनाव में बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया. नतीजतन मायावती चौथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुईं. इस चुनाव में पार्टी को रिकॉर्ड २०६ सीटों पर सफलता हासिल हुई.

कभी उच्च जातियों के ख़िलाफ़ कड़ा तेवर रखने वाली बसपा अब सर्वजन हिताय बहुजन सुखाय की राह पर है.मनुवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आर-पार की लड़ाई लड़ने वाली बसपा का मूड अब थोड़ा सा बदला हुआ है. उदाहरण के तौर पर २००७ के चुनाव में पार्टी के इन दो नारों के बोल काफी कुछ बयां करते हैं. हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा, विष्णु, महेश है.....ब्राह्मण शंख बजाएगा...हाथी बढ़ता जाएगा. पार्टी के मास्टरमाइंड सतीश चंद्र मिश्र की अगुवाई में यूपी के हर ज़िले के गांव-गांव में ब्राह्मण-दलित भाईचारा कमेटी बनाई गई है. जाहिर है लोकतंत्र संख्या बल का खेल है. और इस खेल में ताकत बढ़ाने के लिए बहुत सारी चीजें ताक पर रखनी पड़ती हैं. चाल, चरित्र, चेहरा और ना जाने क्या-क्या बदलना पड़ता है. क्योंकि बड़े फायदे के लिए छोटा नुकसान तो सहना ही पड़ता है. पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में पार्टी ने उत्तर प्रदेश की काफी सीटों पर अगड़ी जाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है. यूपी में सत्ता सुख हासिल करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती की नज़र अब दिल्ली की कुर्सी पर है. और गठबंधन की राजनीति के आज के दौर में ऐसा होना नामुमकिन भी नहीं।


दिनांक- 11-04-2009

संप्रति- सुधाकर सिंह

मोबाइल- 09396582442

1 comment:

डॉ. मनोज मिश्र said...

अब देखना यह है कि लोकसभा चुनाओं में यह फार्मूला कहाँ तक सफल होता है .